(ख) मन राखन को वेनु लियो कर, मृग थाके उडुपति न चरै।
अति आतुर ह्वै सिंह लिख्यो कर जेहि भामिनि को करुन टरै॥
राधा मन बहलाने के लिए, किसी प्रकार रात बिताने के लिए, वीणा लेकर बैठीं। उस वीणा या वेणु के स्वर से मोहित होकर चंद्रमा के रथ का हिरन अड़ गया और चंद्रमा के रुक जाने से रात और भी बढ़ गई। इस पर घबरा कर वे सिंह का चित्र बनाने लगी जिससे मृग डरकर भाग जाय। जायसी की 'पदमावत' में भी यह उक्ति ज्यों की त्यों आई है––
गहै बीन मकु रैनि बिहाई। ससि-बाहन तहँ रहै ओनाई॥
पुनि धनि सिंह उरेहै लागै। ऐसिहि विथा रैनि सब जागै॥
जायसी की पदमावत विक्रम संवत् १५९७ में बनी और सूरसागर संवत् १६०७ के लगभग बन चुका था। अतः जायसी की रचना कुछ पूर्व की ही मानी जायगी। पूर्व की न सही, तो भी किसी एक ने दूसरे से यह उक्ति ली हो, इसकी संभावना नहीं। उक्ति सूर और जायसी दोनों से पुरानी है। दोनों ने स्वतंत्र रूप में इसे कवि-परंपरा द्वारा प्राप्त किया।
कहीं कहीं सूर ने कल्पना को अधिक बढ़ाकर, या यों कहिए कि ऊहा का सहारा लेकर––जैसा पीछे बिहारी ने बहुत किया–– वर्णन कुछ अस्वाभाविक कर दिया है। चन्द्र की दाहकता से चिढ़कर एक गोपी राधा से कहती है––
कर धनु लै किन चंदहि मारि?
तू हरुबाय जाय मंदिर चढ़ि ससि संमुख दर्पन विस्तारि।
याही भाँति बुलाय, मुकुर महि अति वल खंड खंड करि डारि॥
गोपियों का विरहोन्माद कितना ही बढ़ा हो, पर उनकी बुद्धि