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विरह से तड़फड़ा रही हैं, पर कृष्ण राज-सुख के आनंद में फूले नहीं समा रहे हैं। यह बात वे इस चित्र द्वारा कहते हैं––

सागर-कूल मीन तरफत है, हुलसि होत जल पीन।

जैसा ऊपर कहा गया है, जिसे निर्माण करनेवाली––सृष्टि खड़ी करने वाली––कल्पना कहते हैं उसकी पूर्णता किसी एक प्रस्तुत वस्तु के लिए कोई दूसरी अप्रस्तुत वस्तु––जो कि प्रायः कवि-परंपरा में प्रसिद्ध हुआ करती है––रख देने में उतनी नहीं दिखाई पड़ती जितनी किसी एक पूर्ण प्रसंग के मेल का कोई दूसरा प्रसंग––जिसमें अनेक प्राकृतिक वस्तुओं और व्यापारों की नवीन योजना रहती है––रखने में देखी जाती है। सूरदासजी ने कल्पना की इस पूर्णता का परिचय जगह जगह दिया है, इसका अनुमान ऊपर उद्धृत पदों से हो सकता है। कबीर, जायसी आदि कुछ रहस्यवादी कवियों ने इस जीवन का मार्मिक स्वरूप तथा परोक्ष जगत् की कुछ धुँधली सी झलक दिखाने के लिए इसी अन्योक्ति की पद्धति का अवलंबन किया है; जैसे––

हँसा प्यारे! सरवर तजि कहँ जाय!
जेहि सरवर बिच मोती चुनते, बहुविधि केलि कराय॥
सूख ताल, पुरइनि जल छोड़ें, कमल गयो कुँभिलाय।
कह कबीर जो अब की बिछुरै, बहुरि मिलै कब आय॥

रहस्यवादी कवियों के समान सूर की कल्पना भी कभी कभी इस लोक का अतिक्रमण करके आदर्श लोक की ओर संकेत करने लगती है; जैसे––

चकई री! चलि चरन-सरोवर जहाँ न प्रेम-वियोग।
निसि दिन राम राम की वर्षा, भय रुज़ नहिं दुख सोग॥
जहाँ सनक से मीन, हँस सिब, मुनि-जन नख-रवि-प्रभा-प्रकास।