दिखाई पड़ता; पर.मन से उसकी 'स्मृति' नहीं जाती––
एहि बेरियाँ बन तें ब्रज आवते।
दूरहिं तें वह बेनु अधर धरि वारंबार वजावते॥
संयोग के दिनों में आनंद की तरंगें उठानेवाले प्राकृतिक पदार्थों को वियोग के दिनों में देखकर जो दुःख होता है उसकी व्यंजना के लिए कवियों में उपालंभ की चाल बहुत दिनों से चली आती है। चंद्रोपालंभ-संबंधिनी बड़ी सुंदर कविताएँ संस्कृत-साहित्य में हैं। देखिए, सागर-मंथन के समय चंद्रमा को निकालनेवालों तक, इस उपालंभ में, किस प्रकार गोपियाँ अपनी दृष्टि दौड़ाती हैं––
या बिनु होत कहा अब सूनो?
लै किन प्रकट कियो प्राची दिसि, बिरहिनि को दुख दूनो?
सब निरदय सुर, असुर, सैल, सखि! सायर सर्प समेत॥
धन्य कहौं वर्षा ऋतु, तमचुर औ कमलन को हेत।
जुग जुग जीवै जरा वापुरी मिलै राहु अरु केत।
इसी पद्धति के अनुसार वे वियोगिनी गोपियाँ अपने उजड़े हुए नीरस जीवन के मेल में न होने के कारण वृंदावन के हरे भरे पेड़ों को कोसती हैं––
मधुबन! तुम कत रहत हरे?
विरह-वियोग स्यामसुंदर के ठाढ़े क्यों न जरे!
तुम हौ निलज, लाज नहिं तुमको, फिर सिर पुहुप धरे।
ससा स्यार औ बन के पखेरू धिक धिक सबन करे।
कौन काज ठाढ़े रहे बन में, काहे न उकठि परे!
इसी प्रकार रात उन्हें साँपिन सी लग रही है। साँपिन की पीठ काली और पेट सफेद होता है। ऐसा प्रसिद्ध है कि वह काट––