विरह आदि के वर्णन की प्रधानता देखी जाती है। जैसे एशिया के अरब, फ़ारस आदि देशों में वैसे ही युरोप के इटली आदि काव्य- संगीत-प्रिय देशों में भी यही पद्धति प्रचलित रही। इटली में पीट्रार्क की श्रृंगारी कविता एक प्रेमिका के हृदय का उद्गार है। भारत में कृष्ण-कथा के प्रभाव से नायक के आकर्षक रूप में प्रतिष्ठित होने से पुरुषों की प्राधान्य-वासना की अधिक तृप्ती हुई। आगे चलकर पुरुषत्व पर इसका कुछ बुरा प्रभाव भी पड़ा। बहुतेरे शौर्य्य, परा- क्रम आदि पुरुषोचित गुणों से मुँह मोड़ 'चटक मटक लटक' लाने में लगे––बहुत जगह तो माँग-पट्टी, सुरमे, मिस्सी तक की नौबत पहुँची! युरोप में, जहाँ स्त्री प्रधान आकर्षक के रूप में प्रतिष्ठित हुई, इसका उलटा हुआ। वहाँ स्त्रियों के बनाव सिंगार और पहनावे के खर्च के मारे पुरुषों के नाकों दम हो गया।
सूर के संयोग-वर्णन की बात हो चुकी । इनका विप्रलंभ भी ऐसा ही विस्तृत और व्यापक है। वियोग की जितनी अंतर्दशाएँ हो सकती हैं, जितने ढंगों से उन दशाओं का साहित्य में वर्णन हुआ है और सामान्यतः हो सकता है, वे सब उसके भीतर मौजूद हैं। आरंभ वात्सल्य रस के वियोग-पक्ष से हुआ है। कृष्ण के मथुरा से न लौटने पर नंद और यशोदा दुःख के सागर में मग्न हो गए हैं। अनेक दुःखात्मक भावतरंगें उनके हृदय में उठती हैं। कभी यशोदा नंद से खीझकर कहती हैं––
छाँड़ि सनेह चले मथुरा, कत दौरि न चीर गह्यो।
फाटि न गई बज्र की छाती, कत यह सूल सह्यो॥
इस पर नंद यशोदा पर उलट पड़ते हैं––
तब तू मारिबोई करति।
रिसनि आगे कहै जो आवत, अब लै भाँडे़ भरति॥