गर्व दिखाती जान पड़ती है। उसी संबंध-भावना से वे उसे कम फटकारती हैं, कभी उसका भाग्य सराहती हैं और कभी उससे ईर्ष्या प्रकट करती हैं––
(क) माई री! मुरली अति गर्व काहू बदति नहिं आज।
हरि के मुख-कमल देखु पायो सुखराज॥
(ख) मुरली तऊ गोपालहि भावति।
सुन, री सखी! जदपि नँदनंदहि नाना भाँति नचावति।
राखति एक पायँ ठाढ़े करि, अति अधिकार जनावति॥
आपुन पौढ़ि अधर-सज्जा पर कर पल्लव सों पदप लुटावति।
भृकुटी कुटिल, कोप नासांपुट हम पर कोपि कुपावति॥
हृदय के पारखी सूर ने संबंध-भावना की शक्ति का अच्छा प्रसार दिखाया है। कृष्ण के प्रेम ने गोपियों में इतनी सजीवता भर दी है कि कृष्ण क्या, कृष्ण की मुरली तक से छेड़छाड़ करने को उनका जी चाहता है। हवा से लड़नेवाली स्त्रियाँ देखी नहीं, तो कम से कम सुनी बहुतों ने होंगी, चाहे उनकी जिंदादिली की क़द्र न की हो। मुरली के संबंध में कहे हुए गोपियों के वचन से दो मानसिक तथ्य उपलब्ध होते हैं––आलंबन के साथ किसी वस्तु की संबंध-भावना को प्रभाव तथा अत्यंत अधिक या फालतू उमंग के स्वरूप। मुरली संबंधिनी उक्तियों में प्रधानता पहली बात की है, यद्यपि दूसरे तत्त्व का भी मिश्रण है। फालतू उमंग के बहुत अच्छे उदाहरण उस समय देखने में आते हैं, जब कोई स्त्री अपने प्रिय को कुछ दूर पर देख कभी ठोकर खाने पर कंकड़ पत्थर को दो चार मीठी गालियाँ सुनाती है, कभी रास्ते में पड़ती हुई पेड़ की टहनी पर भ्रूभंग सहित झुँझलाती है और कभी अपने किसी साथी को यों ही ढकेल देती है।