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तक कि कुछ ऐसी बातें भी आ गई हैं––जैसे, कृष्ण के कंधे पर चढ़कर फिरने का राधा का आग्रह––जो कम रसिक लोगों को अरुचिकर स्त्रैणता प्रतीत होंगी।

सूर का संयोग-वर्णन एक क्षणिक घटना नहीं है, प्रेम-संगीतमय जीवन की एक गहरी चलती धारा है, जिसमें अवगाहन करनेवाले को दिव्य माधुर्य्य के अतिरिक्त और कहीं कुछ नहीं दिखाई पड़ता। राधा-कृष्ण के रंग-रहस्य के इतने प्रकार के चित्र सामने आते हैं कि सूर का हृदय प्रेम की नाना उमंगों का अक्षय भंडार प्रतीत होता है। प्रेमोदय काल की विनोद-वृत्ति और हृदय-प्रेरित हावों की छटा चारों ओर छलकी पड़ती है। राधा और कृष्ण का गाय चराते समय वन में भी साथ हो जाता है, एक दूसरे के घर आने जाने भी लगे हैं, इसलिए ऐसी ऐसी बातें नित्य न जाने कितनी हुआ करती हैं––

(क) करि ल्यो न्यारी, हरि, आपनि गैयाँ।
नहिं न वसात लाल कछु तुम सों, सवै ग्वाल इक ठैयाँ॥
(ख) धेनु दुहत अति ही रति वाढ़ी।
एक धार दोहनि पहुँचावत, एक धार जहँ प्यारी ठाढ़ी।
मोहन कर तें धार चलति पय, मोहनि-मुख अति ही छवि वाढी़॥
(ग) तुम पै कौन दुहावै गैया?
इत चितवत, उत धार चलावत, एहि सिखयो है मैया?

यशोदा के इस कथन का कि बार बार तू यहाँ क्यों उत्पात मचाने आती है राधा जो उत्तर देती है उसमें प्रेम के आविर्भाव की कैसी सीधी सादी और भोली भाली व्यँजना है––

बार बार तू ह्याँ जनि आवै।
"में कहा करौं सुतहिं नहिं बरजति, घर तें मोहिं बुलावै॥