पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/२४

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नित्य अपने बीच चलते-फिरते, हँसते बोलते, वन में गाय चराते, देखते देखते गोपियाँ कृष्ण में अनुरक्त होती हैं और कृष्ण गोपियों में। इस प्रेम को हम जीवनोत्सव के रूप में पाते हैं; सहसा उठ खड़े हुए तूफान या मानसिक विप्लव के रूप में नहीं, जिसमें अनेक प्रकार के प्रतिबंधों और विघ्न-बाधाओं को पार करने की लंबी चौड़ी कथा खड़ी होती है। सूर के कृष्ण और गोपियाँ पक्षियों के समान स्वच्छंद हैं। वे लोक-बंधनों से जकड़े हुए नहीं दिखाए गए हैं। जिस प्रकार के स्वच्छंद समाज का स्वप्न अँगरेज कवि शेली देखा करते थे उसी प्रकार का यह समाज सूर ने चित्रित किया है।

सूर के प्रेम की उत्पत्ति में रूप-लिप्सा और साहचर्य्य दोनों का योग है। बाल-क्रीड़ा के सखा सखी आगे चलकर यौवन-क्रीड़ा के सखा-सखी हो जाते हैं। गोपियों ने उद्धव से साफ कहा है–– "लरिकाई को प्रेम कहौ, अलि कैसे छूटै"। केवल एक साथ रहते रहते भी दो प्राणियोँ में स्वभावतः प्रेम हो जाता है। कृष्ण एक तो बाल्यावस्था से ही गोपियाँ के बीच रहे, दूसरे सुंदरता में भी अद्वितीय थे। अतः गोपियाँ के प्रेम का क्रमशः विकास दो प्राकृतिक शक्तियोँ के प्रभाव से होने के कारण बहुत ही स्वाभाविक प्रतीत होता है। बाल-क्रीड़ा इस प्रकार क्रमशः यौवन-क्रीड़ा के रूप में परिणत होती गई है कि संधि का पता ही नहीं चलता। रूप का आकर्षण बाल्यावस्था से ही आरंभ हो जाता है। राधा और कृष्ण के विशेष प्रेम की उत्पत्ति सूर ने रूप के आकर्षण द्वारा ही कही है।

(क) खेलन हरि निकसे ब्रज-खोरी।
गए स्याम रबि-तनया के तट, अंग लसति चन्दन की खोरी॥
औचक ही देखी तहँ राधा, नैन विसाल, भाल दिए रोरी।
सूर स्याम देखत ही रीझे, नैन नैन मिति परी ठगोरी॥