पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/२३८

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निकालकर; पूरा करके। [२९३] कुहू=अमावस्या। तमचुर=ताम्रचूड़, मुर्गा। [२९६] आरि=अड़, मुद्रा। बसन=वस्त्र। दसन=दाँत। [२९७] बह्नि=आग धारण करता है। छपा=रात्रि। [२९८] मोपै=मुझसे। भख=काट न ले। [२९९] दुख॰=वृक्षों का गिरना ही दुख है। सिव=स्तन। [३००] तन-दगध=शरीर का जलना। [३०१] सन=से। [३०३] सोध=पता। गहरु=बिलंब। अम्बर=आकाश। [३०७] सीरे=ठंडे। सूरमा=वीर। [३१०] राम कृस्न॰=बलराम और श्रीकृष्ण के कारण किसी को कुछ नहीं समझती थी। [३११] चिलक=शुद्ध 'तिलक', एक वृक्ष जो बसंत में फूलता है। मृगपशु=पशुजाति। बलित=युक्त। [३१३] दागर=नाशक। [३१५] साधौ=उत्कंठा। [३२७] पच्छ= पँख; पलक! अम्बु=जल; आँसू। अमृत=अधरामृत। कीर= सुग्गा, नासिका। कमठ=शुद्ध 'कमल', मुख या नेत्र। कोकिला=वाणी। [३१८] मूल संस्कृत श्लोक यह है––जटा नेयं वेणी कृतकचकलापो न गरलं, गले कस्तूरीयँ शिरसि शशिलेखा न कुसुमम्; इयं भूतिर्नाङ्गे प्रियविरहजन्मा धवलिमा, पुरारातिर्भ्रान्त्या कुसुमशर! किं मां व्यथयसि। [३२४] छपाकर=चन्द्र, मुख। सारस=कमल। [३२६] परेखो=सोच। पौरि=द्वार। [३२८] उमापति=शिव। सोध॰= पता पा गया। दसन॰=दाँत से काटने का। नैनन॰=खारा होने से। [३३०] भवभूति की रचना यों है––धत्ते चक्षुर्मुकुलिनि रणत्कोकिले बालचूते, मार्गे गात्रं क्षिपति बकुलामोदगर्भस्य चायोः; दावप्रेम्णा सरसविसनोपत्रमात्रोत्तरीयः, ताम्यन्मूर्तिः श्रयति बहुशो मृत्यवे चन्द्रपादान्। [३३२] उघारी=खुली। सलाका=सलाई (अंजन लगानेवाली)। आरति=दुःख। [३३५] हंस=परमहंस, ब्रह्मज्ञानी। [३३७] कैसे=समान। आगरे=बढ़कर। [३३८] जल॰=जल में शीशी डुबाने से बुल्ले निकलते हैं। बार=देर। [३४०] पास=पाश, जाल!