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भ्रमरगीत-सार
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अति अज्ञान कहत कहि आयो दूत भयो वहि केरो।
निज जन जानि जतन तें तिनसों कीन्हों नेह घनेरो॥
मैं कछु कही ज्ञानगाथा ते नेकु न दरसति नेरो।
सूर मधुप उठि चल्यो मधुपुरी बोरि जोग को बेरो॥३८२॥


राग धनाश्री

माधव! सुनौ ब्रज को नेम।
बूझि हम षट मास देख्यो गोपिकन को प्रेम॥
हृदय तें नहिं टरत उनके स्याम राम समेत।
अस्रु-सलिल-प्रवाह उर पर अरघ नयनन देत॥
चीर अंचल, कलस कुच, मनो पानि[] पदुम चढ़ाय।
प्रगट लीला देखि, हरि के कर्म, उठतीं गाय॥
देह गेह-समेत अर्पन कमललोचन-ध्यान।
सूर उनके भजन आगे लगै फीको ज्ञान॥३८३॥


कहँ लौं कहिए ब्रज की बात।
सुनहु स्याम! तुम बिनु उन लोगन जैसे दिवस बिहात॥
गोपी, ग्वाल, गाय, गोसुत सब मलिनबदन, कृसगात।
परम दीन जनु सिसिर-हेम-हत[] अंबुजगन बिनु पात॥
जो कोउ आवत देखति हैं सब मिलि बूझति कुसलात।
चलन न देत प्रेम-आतुर उर, कर चरनन लपटात॥
पिक, चातक बन बसन न पावहिं, बायस बलिहि न खात।
सूर स्याम संदेसन के डर पथिक न वा मग जात॥३८४॥


  1. पानि=हाथ, जिनकी उपमा कमल से दी जाती है।
  2. हेम-हत=हिम या पाले के मारे हुए।