बरु वह भली पूतना जाको पय-संग प्रान पियो।
मनमधु अँचै निपट सूने तन यह दुख अधिक दियो॥
देखि अचेत अमृत-अवलोकनि, चलि जु सींचि हियो।
सूरदास प्रभु वा अधार के नाते परत जियो॥३७३॥
अब या तनहि राखि का कीजै?
सुनि री सखी! स्यामसुंदर बिन बाटि[१] बिषम बिष पीजै॥
कै गिरिए गिरि चढ़िकै, सजनी, कैस्वकर सीस सिव दीजै।
कै दहिए दारुन दावानल, कै तो जाय जमुन धँसि लीजै॥
दुसह वियोग बिरह माधव के कौन दिनहिं दिन छीजै?
सूरदास प्रीतम बिन राधे सोचि सोचि मनही मन खीजै॥३७४॥
यशोदा का वचन उद्धव प्रति
राग सोरठ
सँदेसो देवकी सों कहियो॥
हौं तो धाय[२] तिहारे सुत की कृपा करत ही रहियो॥
उबटन तेल और तातो जल देखत ही भजि जाते।
जोइ जोइ माँगत सोइ सोइ देती करम करम करि न्हाते॥
तुम तौ टेव जानतिहि ह्वैहौ तऊ मोहिं कहि आवै।
प्रात उठत मेरे लाल लड़ैतेहि माखन-रोटी भावै॥
अब यह सूर मोहिं निसिबासर बड़ो रहत जिय सोच।
अब मेरे अलक-लड़ैते[३] लालन ह्वै हैं करत सँकोच॥३७५॥