लाज छाँड़ि हम उतहिं आवती चलि न सकति आवै बिरह-ताँवरी[१]।
सूरदास प्रभु बेगि दरस दीजै होय है जग में कीरति रावरी॥३६९॥
ऊधो! जबहिं जाव गोकुलमनि आगे पैयाँ लागन कहियो।
अब मोहिं बिपति परी दर्सन बिनु, सहि न सकत तन दारुन दहियो॥
सरदचंद मोहिं बैरि महा भयो, अनिल सहि न परै किहि बिधि रहियो?
सूर स्याम बिनु गृह बन सूनो, बिन मोहन काको मुख चहियो?॥३७०॥
राग मलार
मेरे मन इतनी सूल रही।
वै बतियाँ छतियाँ लिखि राखीं जे नँदलाल कही॥
एक दिवस मेरे गृह आए मैं ही मथति दही।
देखि तिन्हैं मैं मान कियो सखि सो हरि गुसा गही॥
सोचति अति पछिताति राधिका मुर्छित धरनि ढही।
सूरदास प्रभु के बिछुरे तें बिथा न जाति सही॥३७१॥
राग सारंग
देखौ माधव की मित्राई।
आई उघरि कनक-कलई ज्यों दै निज[२] गये दगाई॥
हम जाने हरि हितू हमारे उनके चित्त ठगाई।
छाँड़ी सुरति सबै ब्रजकुल की निठुर लोग बिलमाई॥
प्रेम निबाहिं कहा वै जानैं साँचेई अहिराई।
सूरदास बिरहिनी बिकल-मति कर मींजै पछिताई॥३७२॥
राग सोरठ
मैं जान्यो मोको माधव हित है कियो।
अति आदर अलि ज्यों मिलि कमलहि मुख-मकरंद लियो॥