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भ्रमरगीत-सार
 


राग सोरठ

कै तुम सों छूटैं लरि ऊधो कै रहिए गहि मौन।
एक हम जरैं जरे पर जारत, बोलहु कुबची[१] कौन?
एक अंग मिले दोऊ कारे, काको मन पतियाए?
तुम सी होय सो तुम सों बोलै, लीने जोगहि आए॥
जा काहू कों जोग चाहिए सो लै भस्म लगावै।
जिन्ह उर ध्यान नंदनंदन को तिन्ह क्यों निर्गुन भावै?
कहौ सँदेस सूर के प्रभु को, यह निर्गुन अँधियारो।
अपनो बोयो आप लूनिए, तुम आपुहि निरवारो[२]॥३६१॥


राग सारंग

ऐसो, माई[३]! एक कोद[४] को हेतु।
जैसे बसन कुसुँभ-रंग मिलि कै नेकुचटक पुनि सेत॥
जैसे करनि किसान बापुरो नौ नौ बाहैं देत[५]
एतेहू पै नीर निठुर भयो उमगि आय सब लेत॥
सब गोपी भाखैं ऊधो सों, सुनियो बात सचेत।
सूरदास प्रभु जन तें बिछुरें ज्यों कृत राई रेत[६]॥३६२॥


  1. कुबची=बुरी बात कहनेवाला।
  2. निरवारो=सुलझाओ (अपने निर्गुण की उलझन को)।
  3. माई=सखी के लिए संबोधन।
  4. कोद=ओर, तरफ।
  5. बाहैं देत=कई बाँह जोतता है।
  6. ज्यों कृत राई रेत=जैसे रेत या बालू में राई कर दी गई हो (रेत में बिखरी राई इकट्ठा करना असंभव होता है)।