राग नट
ऊधो! धनि तुम्हरो ब्यवहार।
धनि वै ठाकुर, धनि वै सेवक, धनि तुम बर्तनहार॥
आम को काटि बबूर लगावत, चन्दन को कुरवार[१]।
सूर स्याम कैसे निबहैगी अन्धधुन्ध सरकार॥३५३॥
जाहु जाहु ऊधो! जाने हौ पहचाने हौ।
जैसे हरि तैसे तुम सेवक, कपट चतुरई-साने हौ॥
निर्गुन-ज्ञान कहाँ तुम पायो, केहि सिखए ब्रज आने हौ।
यह उपदेस देहु लै कुबजहि जाके रूप लुभाने हौ॥
कहँ लगि कहौं योग की बातैं, बाँचत नैन पिराने हो।
सूरदास प्रभु हम हैं खोटी तुम तो बारह बाने[२] हौ॥३५४॥
राग सारंग
मधुबन सब कृतज्ञ धर्मीले।
अति उदार परहित डोलत हैं, बोलत बचन सुसीले॥
प्रथम आय गोकुल सुफलकसुत लै मधुपुरिही सिधारे।
वहाँ कंस ह्याँ हम दीनन को दूनो काज सँवारे॥
हरि को सिखै सिखावन हमको अब ऊधो पग धारे।
ह्वाँ दासी-रति की कीरति कै, यहाँ जोग बिस्तारे॥
अब या बिरह-समुद्र सबै हम बूड़ी चहति नहीं[३]।
लीला सगुन नाव ही, सुनु अलि, तेहि अवलंब रही॥
अब, निर्गुनहि गहे जुवतीजन पारहि कहौ गई को?
सूर अक्रूर छपद के मन में नाहिंन त्रास दई को॥३५५॥