इत देखौं तौ आगे मधुकर मत्त-न्याय सतरात[१]।
फिरि चाहौं[२] तौ प्राननाथ उत सुनत कथा मुसकात॥
हरि साँचे ज्ञानी सब झूठे जे निर्गुन-जस गात[३]।
सूरदास जेहि सब जग डहक्यो[४] ते इनको डहकात॥३४५॥
ब्रज तें द्वै ऋतु पै न गई।
पावस अरु ग्रीषम, प्रचंड, सखि! हरि बिनु अधिक भई॥
ऊरध स्वास समीर, नयन घन, सब जलजोग जुरे।
बरषि जो प्रगट किए दुख दादुर हुते जे दूरि दुरे[५]॥
बिषम बियोग दुसह दिनकर सम दिनप्रति उदय करे।
हरि-बिधु बिमुख भए कहि सूर को तनताप हरे॥३४६॥
तुमहिं मधुप! गोपाल-दुहाई।
कबहुंक स्याम करत ह्याँ को मन, किधौं निपट चित सुधि बिसराई?
हम अहीरि मतिहीन बापुरी हटकत[६] हू हठि करहिं मिताई।
वै नागर मथुरा निरमोही, अँग अँग भरे कपट चतुराई॥
साँची कहहु देहु स्रवनन सुख, छाँड़हु जिया कुटिल धूताई[७]।
सूरदास प्रभु बिरद-लाज धरि मेटहु ह्याँ की नेकु हँसाई॥३४७॥
राग सोरठ
बिरही कहँ लौं आपु सँभारै?
जब तें गंग परी हरिपद तें बहिबो नाहिं निवारै॥
- ↑ मत-न्याय सतरात=पागल की तरह बड़बड़ाता है।
- ↑ फिरि चाहौं=फिरकर जो मथुरा की ओर देखती हूँ (मन बराबर मथुरा आता जाता है)।
- ↑ जस गात=यश गाते हैं।
- ↑ डहक्यो=ठगा, धोखे में डाला माया द्वारा।
- ↑ दुरे हुते=छिपे थे।
- ↑ हटकत हू=मना करते हुए भी।
- ↑ धूताई=घूर्त्तता।