गुन अनेक ते गुन[१], कपूर सम परिमल बारह मास्यो॥
बिरह-अगिनि अँगन सब के, नहिं बुझत परे चौमास्यो[२]।
ताके तीन फुँकैया[३] हरि से, तुम से, पँचसरा[४] स्यो॥
आन-भजन तृन सम परिहरि सब करतीं जोति उपास्यो।
साधन भोग निरञ्जन तें रे अन्धकार तम नास्यो॥
जा दिन भयो तिहारो आवन बोलत ही उपहास्यो।
रहि न सके तुम, सींक रूप ह्वै निर्गुन-काज उकास्यो[५]॥
बाढ़ी जोति सो केस-देस[६] लौं, टूट्या ज्ञान-मवास्यो[७]।
दुरबासना-सलभ सब जारे जे छै रहे अकास्यो॥
तुम तौ निपट निकट के बासी, सुनियत हुते खवास्यो[८]।
गोकुल कछु रस-रीति न जानत, देखत नाहिं तमास्यो॥
सूर, करम की खीर परोसो, फिरि फिरि चरत जवास्यो॥३४१॥
सब जल तजे प्रेम के नाते।
तऊ स्वाति चातक नहिं छाँड़त प्रकट पुकारत ताते॥
समुझत मीन नीर की बातें तऊ प्रान हठि हारत।
सुनत कुरङ्ग नादरस पूरन, जदपि ब्याध सर मारत॥
निमिष चकोर नयन नहिं लावत, ससि जोवत जुग बीते।
कोटि पतंग जोति बपु जारे, भए न प्रेम-घट रीते[९]॥
अब लौं नहिं बिसरीं वे बातें सँग जो करीं ब्रजराज।
सुनि ऊधो! हम सूर स्याम को छाँड़ि देहिं केहि काज?॥३४२॥