अब हम संक्षेप में उन प्रसंगों को लेते हैं जिनमें सूर की प्रतिभा पूर्णतया लीन हुई है। कृष्ण-जन्म की आनंद-बधाई के उपरांत ही बाल-लीला का आरंभ हो जाता है। जितने विस्तृत और विशद रूप में वाल्य-जीवन का चित्रण इन्होंने किया है उतने विस्तृत रूप में और किसी कवि ने नहीं किया। शैशव से लेकर कौमार अवस्था तक के क्रम से लगे हुए न जाने कितने चित्र मौजूद हैं। उनमें केवल बाहरी रूपों और चेष्टाओं का हो विस्तृत और सूक्ष्म वर्णन नहीं है; कवि ने बालकों को अंतःप्रकृति में भी पूरा प्रवेश किया है और अनेक वाल्य भावों की सुंदर स्वाभाविक व्यंजना की है। देखिए, 'स्पर्ध्दा' का भाव, जो बालकों में स्वाभाविक होता है, इन वाक्यों से किस प्रकार व्यंजित हो रहा है––
मैया कवहिं बढै़गी चोटी?
किती वार मोहिं दूध पियत भई, यह अजहूँ है छोटी।
तू जो कहति 'बल' की बेनी ज्यों ह्वैहै लाँबी मोटी॥
बाल-चेष्टा के स्वाभाविक मनोहर चित्रोंँ का इतना बड़ा भांडार और कहीं नहीं है जितना बड़ा सूरसागर में है। दो-चार चित्र देखिए––
(१) कत हौ आरि करत मेरे मोहन यों तुम आँगन लोटी?
जो माँगहु सो देहुँ मनोहर, यहै बात तेरी खोटी।
सूरदास को ठाकुर ठाढ़ो हाथ लकुटि लिए छोटी।
(२) शोभित कर नवनीत लिए।
घुटरुन चलत, रेनु तन मंडित, मुख दधि-लेप किए॥
(३) सिखवत चलन जसोदा मैया।
अरवराय करि पानि गहावत, डगमगाय धरै पैयाँ॥