वै नवतनु मानिनि गृह-बासी, ये निसिदिवस रहत जलजातन।
ये षटपद, वै द्विपद चतुर्भुज, इनमें नाहिं भेद कोउ भाँतन॥
स्वारथ-निपुन सर्बरस भोगी जनि पतियाहु बिरह दुख-दातन[१]।
वै माधव, ये मधुप, सूर सुनि, इन दोउन कोऊ घटि घाट[२] ना॥३३३॥
राग सारंग
हरि सों कहियो, हो, जैसे गोकुल आवैं।
दिन दस रहे सो भली कीन्ही, अब जनि गहरु[३] लगावैं॥
नाहिंन कछू सुहात तुमहिं बिनु, कानन भवन न भावैं।
देखे जात आपनी आँखिन्ह हम कहि कहा जनावैं?
बाल बिलख, मुख गउ न चरति तृन, बछरा पीवत पय नहिं धावैं।
सूर स्याम बिनु रटति रैनिदिन, मिलेहि भले सचु[४] पावैं॥३३४॥
राग सोरठ
सखी री! मथुरा में द्वै हँस।
एक अक्रूर और ये ऊधो, जानत नीके गंस[५]॥
ये दोउ छीर नीर पहिचानत, इनहि बधायों कंस।
इनके कुल ऐसी चलि आई, सदा उजागर बंस॥
अजहूं कृपा करौ मधुबन पर जानि आपनो अंस।
सूर सुयोग सिखावत अबलन्ह, सुनत होय मनभ्रंस[६]॥३३५॥
राग सारंग
बारक कान्ह करौ किन फेरो?
दरसन दै मधुबन को सिधारो, सुख इतनो बहुतेरो॥