जानति नाहिं कौन गुन या तन जातें सबै डरे।
सूरदास सकुचन श्रीपति के सुभटन बल बिसरे॥३३०॥
राग धनाश्री
माधव सों न बनै मुख मोरे।
जिन्ह नयनन्ह ससि स्याम बिलोक्यो ते क्यों जात तरनि[१] सों जोरे।
मुनि-मन-रमन ये जोग, कमठ तन मँदर-भार सहै क्यों[२], ओ रे!
तरुनी-हृदय-कुमुद के बँधन कुंजर क्यों न रहत बिनु तोरे॥
नीलांबर-घनस्याम नीलमनि पैयत है क्यों धूम के भोरे[३]।
सूर भृँग कमलन के बिरही चँपक मन लागत कहुँ थोरे॥३३१॥
राग जैतश्री
और सकल अँगन तें, ऊधो! अँखियाँ अधिक दुखारी।
अतिहि पिराति, सिराति न कबहूँ, बहुत जतन करि हारी॥
एकटक रहति, निमेष न लावति, बिथा बिकल भइ भारी।
भरि गइँ विरह-बाय-बिनु दरसन, चितवति रहति उघारी॥
रे रे अलि! गुरु[४] ज्ञान-सलाकहि क्यों सहि सकति तुम्हारी।
सूर सुअंजन आनु रूप-रस आरति हरन हमारी॥३३२॥
राग कान्हरो
भूलति हौ कत मीठी बातन।
ये अलि हैं उनहीं के संगी, चंचल चित्त, साँवरे गातन॥
वै मुरली धुनि कै जग मोहत, इनकी गुंज सुमन-मन-पातन[५]।
वै उठि आन आन मन रंजत, ये उड़ि अनत रंग-रस-रातन॥