यह पृष्ठ प्रमाणित है।
भ्रमरगीत-सार
१२२
राग सारंग
उपमा न्याय[१] कही अँगन की।
गए मधुपुरी क्यों फिरि आवैं, सोभा कोटि अनंगन की॥
मोरमुकुट सिर सुरधनु की छबि दूरहिं तें दरसावै।
जो कोउ करै कोटि कैसेहु नेकहु छुवन न पावै॥
अलक-भ्रमर भ्रमि भ्रमत सदा बन वहु-बेलीरस चाखै।
कमल-कोस-बासी कहियत पै बंस-बंस[२] अपनो मन राखै॥
कुण्डल मकर, नयन नीरज से, नासा सुक कबिकुल गावै।
थिर[३] न रहै सकुचै निसि-बस ह्वै, पंजर रहिकै बेनु सुनावै॥
भ्रूधनु प्रान-हरन, दसनावलि हीरक, अधर सुबिंब।
सहज कठिन, संगति बुधि-हर्ता, तहँ कीन्हों अवलम्ब[४][५]॥
भुजा प्रचंड महा-रिपु मारक अंस[६] सो क्यों ठहराय।
तामे सप्त-छिद्र- युत मुरली मनहर मन्त्र पढ़ाय॥३१४॥
- ↑ न्याय=ठीक उचित।
- ↑ बंस-बंस=बाँसों, का कुल या समूह।
- ↑ थिर न...सुनावै=ऊपर की पंक्ति के साथ क्रमालङ्कार की रीति से पढ़िए [पंजर=(क) शरीर (ख) पिंजरा। नाक से भी बाँसुरी बजा सकते हैं यह मानने से शुक के साथ संगति मिलती है]।
- ↑ भ्रूधनु......अवलम्ब=इसमें क्रम का निर्वाह नहीं है? हीरक के लिए 'सहज कठिन' और भ्रूधनु का धर्म 'बुधिहर्त्ता' समझिए।
- ↑ इसमें क्रम का निर्वाह ध्यान देने से लक्षित हो जाता है। 'भ्रू धनु' के लिए तो 'प्रान-हरन' विशेषण है। पर 'दसनावलि हीरक' और 'अधर सुबिंब' के लिए 'सहज कठिन' और 'बुधिहर्त्ता' कहा गया है। 'बिंबा' या 'तुंडी' बुद्धि-नाशक कही गई है-'सद्यः प्रज्ञाहरा तुंडी सद्यः प्रज्ञाकरी वचा'।
- ↑ अंस=कंधा (गोपियों का)।