पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/१९७

यह पृष्ठ प्रमाणित है।
भ्रमरगीत-सार
११८
 

आए बोलत ता बिन ऊधो 'मनि दै लेहु मह्यो'[]
निर्गुन साँटि[] गोबिंदहि माँगत, क्यों दुख जात सह्यो॥
जेहि आधार आजु लौं यह तनु ऐसे ही निबह्यो।
सोइ छिंड़ाय[] लेत सुनु सूर चाहत हृदय दह्यो॥३०४॥


राग सारंग

लोग सब देत सुहाई[] बातें।
कहतहि सुगम करत नहिं आबै, बोलि न आवत तातें॥
पहिले आगि सुनत चन्दन सी सती बहुत उमहै।
समाचार ताते अरु सीरे पाछे कौन कहै॥
कहत सबै संग्राम सुगम अति कुसुमलता करवार[]
सूरदास सिर दिए सूरमा पाछे कौन बिचार?॥३०५॥


राग गौरी

बिछुरत श्री ब्रजराज आज सखि! नैनन की परतीति गई।
उड़ि न मिले हरि-संग बिहंगम[] ह्वै न गए घनस्याम-मई।
यातें क्रूर कुटिल सह मेचक[] बृथा मीन छवि छीनि लई।
रूप-रसिक लालची कहावत, सो करनी कछु तौं न भई[]
अब काहे सोचत जल मोचत, समय गए नित सूल नई।
सूरदास याहीं ते जड़ भए जब तें पलकन दगा दई॥३०६॥


  1. मह्यो=मही, मट्ठा।
  2. (२) साँटि=साँटे में, बदले में।
  3. छिड़ाय लेत=छीन लेते हैं।
  4. सुहाई=सुहावनी, प्रिय।
  5. करवार=तलवार।
  6. बिहंगम=क्योंकि नेत्र की उपमा खंजन से देते हैं।
  7. मेचक=कालापन लिए।
  8. कछु...भई=जल से अलग होने पर मछली मर जाती है, पर आँखें बनी रहती हैं।