बिछुरत श्री ब्रजराज आज सखि! नैनन की परतीति गई।
उड़ि न मिले हरि-संग बिहंगम[६] ह्वै न गए घनस्याम-मई।
यातें क्रूर कुटिल सह मेचक[७] बृथा मीन छवि छीनि लई।
रूप-रसिक लालची कहावत, सो करनी कछु तौं न भई[८]॥
अब काहे सोचत जल मोचत, समय गए नित सूल नई।
सूरदास याहीं ते जड़ भए जब तें पलकन दगा दई॥३०६॥