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भ्रमरगीत-सार
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ऊरध स्वास समीर तेज अति दुख अनेक द्रुम डारे।
बदन सदन करि बसे बचन-खग[] ऋतु पावस के मारे॥
ढरि ढरि बूँद परत कंचुकि पर मिलि अंजन सों कारे।
मानहुं सिव की पर्नकुटी बिच धारा स्याम निनारे[]
सुमिरि सुमिरी गरजत निसिबासर अस्रु-सलिल के धारे।
बूड़त ब्रजहि सूर को राखै बिनु गिरिवरधर प्यारे॥२९९॥


जौ तू नेक हू उड़ि जाहि।
बिबिध बचन सुनाय बानी यहाँ रिझवत काहि॥
पतित[] मुख पिक परुष पसु लौं कहा इतो रिसाहि।
नाहिंनै कोउ सुनत समुझत, बिकल बिरहिनि थाहि॥
राखि लेबी अवधि लौं तनु, मदन! मुख जनि खाहि।
तहूँ तौ तन-दगध देख़्यो, बहुरि का समुझाहि॥
नन्दनन्दन को बिरह अति कहत बनत न ताहि।
सूर प्रभु ब्रजनाथ बिनु लै मौन[] मोहि बिसाहि॥३००॥


राग सारंग

मधुकर! जोग न होत सँदेसन।
नाहिंन कोउ ब्रज में या सुनिहै कोटि जतन उपदेसन।
रबि के उदय मिलन चकई को संध्या-समय अँदेस[] न।
क्यों बन बसैं बापुरे चातक, बधिकन्ह काज बधे सन॥


  1. बसे बचन-खग=वचन रूपी पक्षियों ने मुँह में ही बसेरा ले लिया है, बाहर नहीं निकलते।
  2. निनारे=न्यारे, अलग अलग।
  3. पतित मुख=मुँह नीचा किए।
  4. लै मौन......बिसाहि=मौन द्वारा मुझको मोल ले ले अर्थात् चुप रहकर मुझे कृतज्ञ कर।
  5. रवि के...अँदेस न=संध्या समय जब वियोग होता है, तब इसमें संदेह नहीं रहता कि सूर्योदय होने पर फिर मिलन होगा।