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भ्रमरगीत-सार
 

काहे को तुम सर्बस अपनो हाथ पराए देहु।
उन जो महा ठग मथुरा छाँड़ी, सिंधुतीर कियो गेहु॥
अब तौ तपन महा तन उपजी, बाढ्यो मन संदेहु।
सूरदास बिह्वल भइँ गोपी, नयनन्ह बरस्यो मेहु॥२८६॥


राग टोडी

हरि न मिले री माई! जन्म ऐसे ही लाग्यो जान।
जोवत मग द्यौस द्यौस बीतत जुग-समान॥
चातक-पिक-बयन सखी! सुनि न परै कान।
चंदन अरु चंदकिरन कोटि मनो भानु॥
जुवती सजे भूषन रन-आतुर मनो त्रान[१]
भीषण लौं डासि मदन अर्जुन के बान॥
सोवति सर-सेज सूर, चल न चपल प्रान।
दच्छिन-रबि-अवधि अटक इतनीऐ जान॥२८७॥


राग नट

तुम्हरे बिरह ब्रजनाथ अहो प्रिय! नयनन नदी बढ़ी।
लीने जात निमेष-कूल दोउ एते मान चढ़ी॥
गोलक नव-नौका न सकत चलि, स्यो[२] सरकनि[३] बढ़ि बोरति।
ऊरध स्वासु-समीर तरंगन तेज तिलक-तरु तोरति[४]
कज्जल कीच कुचील[५] किए तट अंतर अधर कपोल।
रहे पथिक जो जहाँ सो तहाँ थकि हस्त[६] चरन मुख-बोल॥


  1. त्रान=अंगत्राण, कवच।
  2. स्यो=सहित।
  3. सरकनि=गति या प्रवाह से।
  4. तिलक=टीका या तिलक किनारे के पेड़ हैं (तिलक एक वृक्ष भी है)।
  5. कुचील=गँदा, मैला।
  6. हस्त चरन=ये सब मानों पथिक हैं।