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देवताओं का फूल बरसाना देखकर उक्त कर्म के लोकव्यापी प्रभाव का कुछ आभास मिलता है। पर वह वर्णन विस्तृत नहीं है। सूर- दास का मन जितना नंद के घर की आनंद-बधाई, बाल-क्रीड़ा, मुरली की मोहिनी तान, रास-नृत्य, प्रेम के रंग-रहस्य और संयोग वियोग की नाना दशाओं में लगा है उतना ऐसे प्रसंगों में नहीं। ऐसे प्रसंगों को उन्होंने किसी प्रकार चलता कर दिया है। कुछ लोग रामचरितमानस में राम के प्रत्येक कर्म पर देवताओं का फूल बरसाना देखकर ऊबते से हैं। उन्हें समझना चाहिए कि गोस्वामीजी ने राम के प्रत्येक कर्म को ऐसे व्यापक प्रभाव का चित्रित किया है जिस पर तीनों लोकों की दृष्टि लगी रहती थी। कृष्ण का गोचारण और रास-लीला आदि देखने को भी देवगण एकत्र हो जाते हैं, पर केवल तमाशबीन की तरह।

सूरदासजी को मुख्यतः श्रृंगार और वात्सल्य का कवि समझना चाहिए, यद्यपि और रसों का भी एकाध जगह अच्छा वर्णन मिल जाता है; जैसे, दावानल के इस वर्णन में भयानक रस का––

भहरात झहरात दावानल आयो।
घेरि चहुँ ओर, करि सोर अंदोर वन धरनि आकास चहुँ पास छायो।
बरत बन-बाँस, थरहरत कुस-कास, जरि उक्त बहु साँझ. अति प्रवल धायो।
झपटि झपटत लपट, फूल फूटत पटकि, चटकि लट लटकि द्रुम फटि नवायो।
अति अगिनि झार भंभार धुंधार करि उचटि अंगार झंमार छायो।
बरत बनपात, भहरात, झहरात, अररात तरु महा धरनी गिरायो।

पर जैसा कहते आ रहे हैं, मुख्यता श्रृंगार और वात्सल्य की ही है। पर इसमें संदेह नहीं कि इन दोनों रसों के वे सबसे बड़े कवि हैं।

यहाँ तक तो सूर की रचना की सामान्य दृष्टि से समीक्षा हुई।