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भ्रमरगीत-सार
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पहिरे सुहाए सुबास सुहागिनि झुंडन झूलन गावन के।
गरजत घुमरि घमंड दामिनी मदन धनुष धरि धावन के॥
दादुर मोर सोर सारँग पिक सोहैं निसा सूरमा वन के।
सूरदास निसि कैसे निघटत त्रिगुन किए सिर रावन के[१]॥२८३॥


हमारे माई! मोरउ बैर परे।
घन गरजे बरजे नहिं मानत त्यों त्यों रटत खरे।
करि एक ठौर बीनि इनके पंख मोहन सीस धरे।
याही तें हम ही को मारत, हरि ही ढीठ करे॥
कह जानिए कौन गुन, सखि री! हम सों रहत अरे।
सूरदास परदेस बसत हरि, ये बन तें न टरे॥२८४॥


राग आसावरी

सखी री! हरिहि दोष जनि देहु।
जातें इते मान दुख पैयत हमरेहि कपट सनेहु॥
विद्यमान अपने इन नैनन्ह सूनो देखति गेहु।
तदपि सूल-ब्रजनाथ-बिरह तें भिदि न होत बड़ बेहु[२]
कहि कहि कथा-पुरातन ऊधो! अब तुम अंत न लेहु।
सूरदास तन तो यों ह्वै है ज्यों फिरि फागुन मेहु[३]॥२८५॥


उघरि आयो परदेसी को नेहु।
तब तुम 'कान्ह कान्ह' कहि टेरति फूलति ही[४], अब लेहु[५]


  1. त्रिगुन...रावन के=रावण के सिर के तिगुने अर्थात् तीस (रातभर में तीस घड़ियाँ होती हैं)।
  2. बेहु=बेध, छेद।
  3. फागुन मेहु=जलरहित, जीवनरहित।
  4. फूलति ही=मन में फूलती थी।
  5. अब लेहु=अब परिणाम देखो।