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भ्रमरगीत-सार
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पहिरे सुहाए सुबास सुहागिनि झुंडन झूलन गावन के।
गरजत घुमरि घमंड दामिनी मदन धनुष धरि धावन के॥
दादुर मोर सोर सारँग पिक सोहैं निसा सूरमा वन के।
सूरदास निसि कैसे निघटत त्रिगुन किए सिर रावन के[१]॥२८३॥
हमारे माई! मोरउ बैर परे।
घन गरजे बरजे नहिं मानत त्यों त्यों रटत खरे।
करि एक ठौर बीनि इनके पंख मोहन सीस धरे।
याही तें हम ही को मारत, हरि ही ढीठ करे॥
कह जानिए कौन गुन, सखि री! हम सों रहत अरे।
सूरदास परदेस बसत हरि, ये बन तें न टरे॥२८४॥
राग आसावरी