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भ्रमरगीत-सार
 


राग केदारो

मधुकर! पीत बदन[] किहि हेत?
जनु अन्तरमुख पांडु रोग भयो जुवतिन जो दुख देत॥
रसमय तन मन स्याम-धाम सो ज्यों उजरो संकेत[]
कमलनयन के बचन सुधा से करट[] घूँट भरि लेत॥
कुत्सित कटु बायस सायक सो अब बोलत रसखेत?
इन चतुरी तें लोग बापुरे कहत धर्म को सेत[]
माथे परौ जोगपथ तिनके वक्ता छपद समेत।
लोचन ललित कटाच्छ मोच्छ बिनु महि में जिऐं निचेत॥
मनसा बाचा और कर्मना स्यामसुन्दर सों हेत।
सूरदास मन की सब जानत हमरे मनहिं जितेत[]॥२७१॥


मधुकर! मधुमदमातो डोलत।
जिय उपजत सोइ कहत न लाजत सूधे बोल न बोलत॥
बकत फिरत मदिरा के लीन्हें बारबार तन घूमत।
ब्रीड़ारहित[] सबन अवलोकत लता-कली-मुख चूमत॥
अपनेहूँ मन की सुधि नाहीं पर्‌यो आन ही कोठो[]
सावधान करि लेहि अपनपौ तब हम सों करु गोठो[]
मुख लागी है पराग पीक की, डारत नाहिंन धोई।
ताँसों कह कहिए सुनु, सूर, लाज डारि सब खोई॥२७२॥


  1. पीत बदन=भौंरे के सिर पर पीला चिह्न होता है।
  2. संकेत=मिलने का स्थान।
  3. करट=कौआ।
  4. धर्म को सेत=धर्म को पार लगानेवाले, सेतु, पुल।
  5. जितेत=जितना।
  6. ब्रीड़ा=लज्जा।
  7. पर्‌यो......कोठो=मन और ही कोठे में है अर्थात् भ्रांत है।
  8. गोठो=गोष्ठी, सलाह।