तैसोई तू, तैसो तेरो ठाकुर, एकहि बरनहि बाने।
पहिले प्रीति पिवाय सुधारस पाछे जोग बखाने॥
एक समय पंकजरस वासे दिनकर अस्त न माने।
सोइ सूर गति भइ ह्याँ हरि बिनु हाथ मीड़ि पछिताने॥२४६॥
मधुकर! कहत सँदेसो सूलहु[१]।
हरिपद छाँड़ि चले तातें तुम प्रीतिप्रेम भ्रमि भूलहु॥
नहिं या उक्ति मृदुल श्रीमुख की जे तुम उर में हूलहु[२]।
बिलज न बदन होत या उचरत जो संधान न मूलहु[३]॥
उत बड़ ठौर नगर मथुरा, इत तरनितनूजा[४] कूलहु।
उत महराज चतुर्भुज सुमिरौ, इत किसोरनँद दूलहु॥
जे तुम कही बड़ेन की बतियाँ ब्रज जन नहिं समतूलहु।
सूर स्याम गोपी-सँग बिलसे कंठ धरे भुजमूलहु॥२४७॥
राग सोरठ
मधुकर! यहाँ नहीं मन मेरो।
गयो जो सँग नंदनंदन के बहुरि न कीन्हो फेरो॥
लयो नयन मुसकानि मोल है, कियो परायो चेरो।
सौंप्यो जाहि भयो बस ताके, बिसर्यो बास-बसेरो॥
को समुझाय कहै सूर जो रसवस काहू केरो?
मँदे पर्यो, सिधारू अनत लै, यह निर्गुन मत तेरो॥२४८॥
मधुकर! हमहीं कौ समझावत।
बारंबार ज्ञानगाथा ब्रज अबलन आगे गावत॥