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भ्रमरगीत-सार
 


ऊधो! तुम जो कहत हरि हृदय रहत हैं।

कैसे होय प्रतीति क्रूर सुनि ये बातैं जु सहत हैं॥
बासर-रैनि कठिन बिरहानल अंतर प्रान दहत है।
प्रजरि प्रजरि[१] पचि निकसि धूम अब नयनन नीर बहत है॥
अधिक अवज्ञा होत, देह दुख मर्यादा न गहत है।
कहि! क्यों मन मानै सूर प्रभु इन बातनि जु कहत है॥२०१॥


ऊधो! तुमहीं हौ सब जान[२]

हमको सोई सिखावन दीजै नँदसुवन की आन॥
आमिष भोजन हित है जाके सो क्यों साग प्रमान।
ता मुख सेमि-पात क्यों भावत जा मुख खाए पान?
किंगिरी-सुर कैसे सचु मानत सुनि मुरली को गान?
ता भीतर क्यों निर्गुन आवत जा उर स्याम सुजान?
हम बिन स्याम बियोगिनि रहिहैं जब लग यहि घट प्रान।
सुख ता दिन तें होय सूर प्रभु ब्रज आवैं ब्रजभान॥२०२॥


ऊधो! यहै बिचार गहौ।

कै तन गए भलो मानैं, कै हरि ब्रज आय रहौ॥
कानन-देह विरह-दव लागी इन्द्रिय-जीव जरौ।
बुझै स्याम-धन कमल-प्रेम मुख मुरली-बूँद परौ॥
चरन-सरोवर-मनस[३] मीन-मन रहै एक रसरीति।
तुम निर्गुनबारू महँ डारौ; सूर कौन यह नीति?॥२०३॥


ऊधो! कत वे बातें चाली?

अति मीठी मधुरी हरि-मुख की हैं उर-अंतर साली॥


  1. प्रजरि=सुलगकर।
  2. जान=सुजान, चतुर।
  3. सरोवर मनस=मानस सरोवर।