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भ्रमरगीत-सार
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ऊधो! जो हरि आवैं तो प्रान रहैं।

आवत, जात, उलटि फिरि बैठत जीवन-अवधि गहे॥
जब हे दाम उखल सों बाँधे बदन नवाय रहे।
चुभि जु रही नवनीत-चोर-छवि, क्यों भूलति सो ज्ञान गहे?
तिनसों ऐसी क्यों कहि आवै जे कुल-पति की त्रास महे[]?
सूर स्याम गुन-रसनिधि तजिकै को घटनीर बहे?॥१९८॥


ऊधो! यह निस्चय हम जानी।

खोयो गयो नेहनग उनपै, प्रीति-कोठरी भई पुरानी॥
पहिले अधरसुधा करि सींची, दियो पोष बहु लाड़ लड़ानी।
बहुरै खेल कियो केसव सिसु-गृहरचना ज्यों चलत बुझानी॥
ऐसे ही परतीति दिखाई पन्नग केंचुरि ज्यों लपटानी।
बहुरौ सुरति लई नहिं जैसे भँवर लता त्यागत कुम्हिलानी॥
बहुरंगी जहँ जाय तहाँ सुख, एकरंग दुख देह दहानी[]
सूरदास पसु धनी चोर के खायो चाहत दाना पानी॥१९९॥


उधो! हम हैं तुम्हरी दासी।

काहे को कटु बचन कहत हौ, करत आपनी हाँसी॥
हमरे गुनहि गाँठि किन बाँध्यो, हमपै कहा बिचार?
जैसी तुम कीनी सो सब ही जानतु है संसार॥
जो कछु भली बुरी तुम कहिहौ सो सब हम सहि लैहैं।
अपनो कियो आप भुगतैंगी दोष न काहू दैहैं॥
तुम तौ बड़े, बड़े के पठए, अरु सबके सरदार।
यह दुख भयो सूर के प्रभु सुनि कहस लगाबन छार॥२००॥


  1. महे=मथ डाला, नष्ट किया।
  2. दहानी=जली।