बाल बिलख, मुख गौ न चरत तृन, बछरनि छीर न प्यावैं॥
देखत अपनी आँखिन, ऊधो, हम कहि कहा जनावैं।
सूर स्याम बिनु तपति रैन-दिनु हरिहि मिले सचु पावैं॥१८०॥
जिय जानौ अरु हृदय बिचारौ हम न इतो दुख सैहैं॥
बूझौ जाय कौन के ढोटा, का उत्तर तब दैहैं?
खायो खेल्यो संग हमारे, ताको कहां बनैहैं॥
गोकुलमनि मथुरा के बासी कौ लों झूठो कैहैं।
अब हम लिखि पठवन चाहति हैं वहाँ पाति नहिं पै हैं।
इन गैयन चरिवा छाँड्यो है जो नहिं लाल चरै हैं।
एते पै नहिं मिलत सूर प्रभु फिरि पाछे पछितैहैं॥१८१॥
जो जीवैं तो, सुन सठ! ज्ञानी, तन तजैं रूपहरी॥
गुन गावैं तौ सुक-सनकादिक, संग धावै तौ लीला करी।
आसा अवधि संतोष धरैं तौ धार्मिक ब्रज-सुन्दरी॥
स्यामा है सब सखी सुजाती पै सब बिरह-भरी।
सोक-सिंधु तरिबे की नौका जिहि मुख मुरलि धरी॥
निसिदिन फिरत निरंकुस अति बड़ मातो मदन-करी[१]।
डाहैगो सब धाम सूर जो चितौ न वह केहरी॥१८२॥
दरस-हीन, दुखित दीन, छन छन विपदा सही॥
रजनी अति प्रेमपीर, गृह बन मन धरै न धीर।
बासर मग जोवत, उर सरिता बही नयननीर॥
- ↑ करी=हाथी।