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भ्रमरगीत-सार
या ब्रज के व्योहार जिते हैं सब हरि सों कहियो।
देखि जात अपनी इन आँखिन दावानल दहियो।
कहँ लौं कहौं बिथा अति लाजति यह मन को सहियो॥
कितो प्रहार करत मकरध्वज हृदय फारि चहियौ।
यह तन नहिं जरि जात सूर प्रभु नयनन को बहियौ॥१७८॥
घर, बाहिर, सरिता, बन, उपबन, बल्ली, द्रुमन चढ्यो॥
बासर-रैन सधूम भयानक दिसि दिसि तिमिर मढ्यो।
द्वँद करत अति प्रबल होत पुर, पय सों अनल डढ्यो॥
जरि किन होत भस्म छन महियाँ हा हरि, मँत्र पढ्यो।
सूरदास प्रभु नँदनँदन बिनु नाहिंन जात कढ्यो॥१७९॥
ऊधो! तुम कहियो ऐसे गोकुल आवैं।
दिन दस रहे सो भली कीनी अब जनि गहरु लगावैं॥
तुम बिनु कछु न सुहाय प्रानपति कानन भवन न भावैं।