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लिए ही होती है, अतः इसमें लाए हुए रूप या व्यापार ऐसे ही होने चाहिए जो प्रभाव में उन प्रस्तुत रूपों या व्यापार के समान हों। सूर अलंकार-योजना के लिए अधिकतर ऐसे ही पदार्थ लाए हैं।

सारांश यह कि यदि हम बाह्य सृष्टि से लिए रूपों और व्यापारों के संबंध में सूर की पहुँच का विचार करते हैं तो यह बात स्पष्ट देखने में आती है कि प्रस्तुत रूप में लिए हुए पदार्थों और व्यापारों की संख्या परिमित है। उन्होंने कृष्ण और राधा के अंग-प्रत्यंग, मुद्राओं और चेष्टाओं, यमुना-तट, वंशीवट, निकुंज, गोचारण, वन-विहार, बाल-लीला, चोरी, नटखटी तथा कवि-परिपाटी में परिगणित ऋतु-सुलभ वस्तुओं तक ही अपने को रखा है।

इसके कारण दो हैं––पहली बात तो यह है कि इनकी रचना 'गीत-काव्य' है जिसमें मधुर ध्वनि-प्रवाह के बीच कुछ चुने हुए पदार्थों और व्यपारों की झलक भर काफी होती है। गोस्वामी तुलसीदासजी के समान सूरसागर प्रबंध-काव्य नहीं है जिसमें कथाक्रम से अनेक पदार्थों और व्यापारों की श्रृंखला जुड़ती चली चलती है। सूरदासजी ने प्रत्येक लीला या प्रसंग पर फुटकर पद कहे हैं; एक पद दूसरे पद से संबद्ध नहीं है। प्रत्येक पद स्वतन्त्र है। इसीसे किसी एक प्रसंग पर कहे हुए पदों को यदि हम लेते हैं तो एक ही घटना से संबंध रखनेवाली एक ही बात भिन्न-भिन्न रागिनियों में कुछ फेरफार के साथ बहुत से पदों में मिलती है जिससे पढ़नेवाले का जी कभी-कभी ऊब सा जाता है। यह बात प्रकृत प्रबंध-काव्य में नहीं होती।

परिमित का दूसरा कारण पहले ही कहा जा चुका है कि सूर- दासजीने जीवन की वास्तव में दो ही वृत्तियाँ ली हैं––बाल-वृत्ति और यौवन-वृत्ति। इन दोनों के अंतर्गत आए हुए व्यापार क्रीड़ा,