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भ्रमरगीत-सार
जाकी मनि हरि लई सीस तें कहा करै अहि मूक?
सूरदास ब्रजबास बसीं हम मनहूँ दाहिने सूक[१]॥
ऊधों! जोग जानै कौन?
फिर ब्रज बसहु गोकुलनाथ।
बहुरि न तुमहिं जगाय पठवौं गोधनन के साथ॥
बरजौं न माखन खात कबहूँ, दैहौं देन लुटाय।
कबहूँ न दैहौं उराहनो जसुमति के आगे जाय॥
दौरि दाम न देहुँगी, लकुटी न जसुमति-पानि।
चोरी न देहुँ उघारि, किए औगुन न कहिहौं आनि॥