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भ्रमरगीत-सार
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पठयो है गोपाल कृपा कै आयसु तें न टरैं॥
रसना वारि फेरि नव खंड कै, दै निर्गुन के साथ।
इतनी तनक बिलग जनि-मानहुँ, अँखियाँ नाहीं हाथ॥
सेवा कठिन, अपूरब दरसन कहत अबहुँ मैं फेरि।
कहियो जाय सूर के प्रभु सों केरा पास ज्यों बेरि[१]॥१४८॥
मधुकर! तौ औरनि सिख देहु।
जानौगे जब लागैगो, हो, खरो कठिन है नेहु॥
मन जो तिहारो हरिचरनन-तर, तन धरि गोकुल आयो।
कमलनयन के संग तें बिछुरे कहु कौने सचु पायो?
ह्याँई रहौ जाहु जनि मथुरा, झूठो माया-मोहु।
गोपी सूर कहत ऊधो सों हमहीं से तुम होहु॥१४९॥
फूँकि फूँकि हियरा सुलगावत उठि न यहाँ तें जात॥
जो उर बसत जसोदानंदन निगुन कहाँ समात?
कत भटकत डोलत कुसुमन को तुम हौ पातन पात?
जदपि सकल बल्ली बन बिहरत जाय बसत जलजात[२]।
सूरदास ब्रज मिले बनि आवै? दासी की कुसलात॥१५०॥
तिहारी प्रीति किधौं तरवारि?
दृष्टि-धार करि मारि साँवरे घायल सब ब्रजनारि॥