पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/१३८

यह पृष्ठ प्रमाणित है।
५७
भ्रमरगीत-सार
 

ये बल्ली बिहरत बृंदावन अरुझीं स्याम-तमालहिं।
प्रेमपुष्प-रस-बास हमारे बिलसत मधुप गोपालहिं॥
जोग-समीर धीर नहिं डोलत, रूपडार-ढिग लागी।
सूर पराग न तजत हिये तें कमल-नयन-अनुरागी॥१४०॥


मधुकर! स्याम हमारे ईस।

जिनको ध्यान धरे उर-अंतर आनहिं नए न उन बिंन सीस॥
जोगिन जाय जोग उपदेसौ जिनके मन दस बीस।
एकै मन, एकै वह मूरति, नित बितवत दिन तीस॥
काहे निर्गुन-ज्ञान आपुनो जित तित डारत खीस[]
सूर प्रभू नंदनंदन हैं उनतें को जगदीस?॥१४१॥


राग मलार
मधुकर! तुम हौ स्याम-सखाई।

पा लागों यह दोष बकसियो संमुख करत ढिठाई॥
कौने रंक संपदा बिलसी सोवत सपने पाई?
किन सोने की उड़त चिरैया डोरी बांधि खिलाई?
धाम धुआँ के कहौ कौन के बैठी कहाँ अथाई[]?
किन अकास तें तोरि तरैयाँ आनि धरी घर, माई!
बौरन की माला गुहि कौनै अपने करन बनाई?
बिन जल नाव चलत किन देखी, उतरि पार को जाई?
कौनै कमलनयन-ब्रत बीड़ो[] जोरि समाधि लगाई?
सूरदास तू फिरि फिरि आवत यामें कौन बड़ाई?॥१४२॥


  1. खीस डारना=नष्ट कर डालना।
  2. अथाई=बैठक, चौबारा।
  3. बीड़ो जोरि=बीड़ा उठाकर, प्रतिज्ञा करके।