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भ्रमरगीत-सार
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उनके प्रेम-प्रीति मनरंजन, पै ह्याँ सकल सीलब्रतधारी।
सूर बचन मिथ्या, लंगराई[१] ये दोऊ ऊधों की न्यारी॥१३७॥
जरत पतंग दीप में जैसे, औ फिरि फिरि लपटात॥
रहत चकोर पुहुमि पर, मधुकर! ससि[२] अकास भरमात।
ऐसो ध्यान धरो हरिजू पै छन इत उत नहिं जात॥
दादुर रहत सदा जल-भीतर कमलहिं नहिं नियरात।
काठ फोरि घर कियो मधुप पै बंधे अंबुज के पात॥
बरषा बरसत निसिदिन, ऊधो! पुहुमी पूरि अघात।
स्वाति-बूंद के काज पपीहा छन छन रटत रहात॥
सेहि[३] न खात अमृतफल भोजन तोमरि को ललचात।
सूर कृस्न कुबरी रीझे गोपिन देखि लजात॥१३८॥
कुंज कलोल करे बन ही बन सुधि बिसरी वा भूलन की।
ब्रज हम दौरि आँक भरि लीन्ही देखि छाँह नव मूलन की॥
अब वह प्रीति कहाँ लौं बरनौं वा जमुना के कूलन की॥
वह छवि छाकि रहे दोउ लोचन बहियां गहि बन झूलन की।
खटकति है वह सूर हिये मों माल दई मोहिं फूलन की॥१३९॥