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भ्रमरगीत-सार
जौ तुम पद्मपराग छांड़िकै करहु ग्राम-बसबास[१]।
तौ हम सूर यहौ करि देखैं निमिष छांड़हीं पास॥१२८॥
ऊधो! जानि परे सयान।
नारियन को जोग लाए, भले जान सुजान॥
निगम हूँ नहिं पार पायो कहत जासों ज्ञान।
नयनत्रिकुटी जोरि संगम जेहि करत अनुमान॥
पवन धरि रबि-तन निहारत, मनहिं राख्यो मारि।
सूर सो मन हाथ नाहीं गयो संग बिसारि॥१२९॥
ऊधो! मन नहिं हाथ हमारे।
रथ चढ़ाय हरि संग गए लै मथुरा जबै सिधारे॥
नातरु कहा जोग हम छांड़हि अति रुचि कै तुम ल्याए।
हम तौ झकति[२] स्याम की करनी, मन लै जोग पठाए॥
अजहूँ मन अपनो हम पावैं तुमतें होय तो होय।
सूर, सपथ हमैं कोटि तिहारी कहौ करैंगी सोय॥१३०॥