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भ्रमरगीत-सार
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जौ नहीं ब्रज में बिकानो नगरनारि बिसाहु।
सूर वै सब सुनत लैहैं जिय कहा पछिताहु॥१२५॥


ऊधो! कछु कछु समुझि परी।

तुम जो हमको जोग लाए भली करनि करी॥
एक बिरह जरि रहीं हरि के, सुनत अतिहि जरी।
जाहु जनि अब लोन लावहु देखि तुमहिं डरी॥
जोग-पाती दई तुम कर बड़े जान[] हरी।
आनि आस निरास कीन्ही, सूर सुनि हहरी[]॥१२६॥


राग धनाश्री
ऊधो! सुनत तिहारे बोल।

ल्याए हरि-कुसलात धन्य तुम घर घर पार्‌यो गोल[]
कहन देहु कह करै हमारो बरि उड़ि जैहै झोल[]
आवत ही याको पहिंचान्यो निपटहि ओछो तोल॥
जिनके सोचन रही कहिबे तें, ते बहु गुननि अमोल।
जानी जाति सूर हम इनकी बतचल[] चंचल लोल॥१२७॥


राग नटनारायण
ऐसी बात कहौ जनि ऊधो!

ज्यों त्रिदोष उपजे जक लागति, निकसत बचन न सूधो॥
आपन तौ उपचार करौ कछु तब औरन सिख देहु।
मेरे कहे बनाय न राखौ थिर कै कतहूँ गेहु॥


  1. जान=सुजान, चतुर।
  2. हहरी=दहल गई।
  3. गोल पाज्यो=गड़बड़ मचाया, गोलमाल किया।
  4. झोल=राख, भस्म।
  5. बतचल=बकवादी।