हम ग्वालिन, गोरस दधि बेंचौ, लेहिं अबै सबरी।
सूर यहाँ कोउ गाहक नाहीं देखियत गरे परी॥१११॥
गुप्त मते की बात कहौ जनि कहुँ काहू के आगे।
कै हम जानैं कै तुम, ऊधो! इतनो पावैं माँगे॥
एक बेर खेलत बृँदाबन कंटक चुभि गयो पाँय।
कंटक सों कंटक लै काढ्यो अपने हाथ सुभाय॥
एक दिवस बिहरत बन-भीतर मैं जो सुनाई भूख।
पाके फल वै देखि मनोहर चढ़े कृपा करि रूख॥
ऐसी प्रीति हमारी उनकी बसते गोकुल-बास।
सूरदास प्रभु सब बिसराई मधुबन कियो निवास॥११२॥
मधुकर! राखु जोग की बात।
कहि कहि कथा स्यामसुंदर की सीतल करु सब गात॥
तेहि निर्गुन गुनहीन गुनैबो सुनि सुंदरि अनखात।
दीरघ नदी नाव कागद की को देख्यो चढ़ि जात?
हम तन हेरि, चितै अपनो पट देखि पसारहि लात।
सूरदास वा सगुन छाँड़ि छन जैसे कल्प बिहात॥११३॥
ऊधो! तुम अति चतुर सुजान।
जे पहिले रँग रंगी स्यामरँग तिन्हैं न चढ़ै रँग आन॥
द्वै लोचन जो विरद किए स्रुति गावत एक समान[१]।
भेद चकोर कियो तिनहू में बिधु प्रीतम, रिपु भान॥
- ↑ दुइ लोचन......समान=उपनिषद् आदि में सूर्य और चंद्रमा ईश्वर के दो नेत्र कहे गए हैं।