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भ्रमरगीत-सार
 

कैतव[]-बचन छाँड़ि हरि हमको सोइ करैं जो मूल।
जोग हमैं ऐसो लागत है ज्यों तोहि चंपक फूल॥
अब क्यों मिटत हाथ की रेखा? कहौ कौन बिधि कीजै?
सूर, स्याममुख आनि दिखाओ जाहि निरखि करि जीजै॥१०२॥


राग गौड़
ऊधो! ना हम बिरही, ना तुम दास।

कहत सुनत घट प्रान रहत हैं, हरि तजि भजहु अकास॥
बिरही मीन मरत जल बिछुरे छाँड़ि जियन की आस।
दास-भाव नहिं तजत पपीहा बरु सहिं रहत पियास॥
प्रगट प्रीति दसरथ प्रतिपाली प्रीतम के बनवास।
सूर स्याम सों दृढ़ब्रत कीन्हों मेटि जगत-उपहास॥१०३॥


राग सोरठ
ऊधो! कही सो बहुरि न कहियो।

जौ तुम हमहिं जिवायो चाहौ अनबोले[] ह्वै रहियो॥
हमरे प्रान अघात होत हैं, तुम जानत हौ हाँसी।
या जीवन तें मरन भलो है करवट लैबो कासी[]
जब हरि गवन कियौ पूरब लौं तब लिखि जोग पठायो।
यह तन जरिकै भस्म ह्वै निबर्‌यौ[] बहुरि मसान जगायो॥
कै रे! मनोहर आनि मिलायो, कै लै चलु हम साथे।
सूरदास अब मरन बन्यो है, पाप तिहारे माथे॥१०४॥


  1. कैतव=छल, कपट।
  2. अनबोले=चुप।
  3. काशी करवट लेना=पहले योग मुक्ति की इच्छा से काशी में अपने को आरे से चिरवा डालते थे, उसी को करवट लेना कहते थे। करवट=करपत्र, आरा।
  4. भस्म ह्वै निबर्‌यौ=भस्म ही हो कर रहा।