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भ्रमरगीत सार
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राग धनाश्री
ऊधो! जान्यो ज्ञान तिहारो।

जानै कहा राजगति-लीला अंत अहीर बिचारो॥
हम सबै अयानी, एक सयानी कुबजा सों मन मान्यो।
आवत नाहिं लाज के मारे, मानहु कान्ह खिस्यान्यो[१]
ऊधो जाहु बाँह धरि ल्याओ सुन्दरस्याम पियारो।
ब्याहौ लाख, धरौं[२] दस कुबरी, अंतहि कान्ह हमारो॥
सुन, री सखी! कछू नहिं कहिए माधव आवन दीजै।
जबहीं मिलैं सूर के स्वामी हाँसी करि करि लीजै॥९४॥


राग केदारो
उर में माखनचोर गड़े।

अब कैसहु निकसत नहिं ऊधो! तिरछे ह्वै जो अड़े॥
जदपि अहीर जसोदानंदन तदपि न जात छड़े।
वहाँ बने जदुबंस महाकुल हमहिं न लगत बड़े॥
को बसुदेव, देवकी है को, ना जानैं औ बूझैं।
सूर स्यामसुन्दर बिनु देखें और न कोऊ सूझैं॥९५॥


राग सारंग
गोपालहिं कैसे कै हम देति?

ऊधो की इन मीठी बातन निर्गुन कैसे लेति?
अर्थ, धर्म, कामना सुनावत सब सुख मुकुति-समेति।
जे व्यापकहिं बिचारत बरनत निगम कहत हैं नेति॥
ताकी भूलि गई मनसाहू देखहु जौ चित चेति।
सूर स्याम तजि कौन सकत है, अलि, काकी गति एति॥९६॥


  1. खिस्यान्यो=लजाया।
  2. धरौं=रखे, बैठा ले।