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भ्रमरगीत-सार
 

जैसे मीन, कमल, चातक की ऐसे ही गइ बीति।
तलफत, जरत, पुकारत सुनु, सठ! नाहिंन है यह रीति॥
मन हठि परे, कबंध-जुद्ध ज्यों, हारेहू भइ जीति।
बँधत न प्रेम-समुद्र सूर बल कहुँ बारुहि की भीति॥९०॥


मधुबनियाँ लोगनि को पतिआय?

मुख औरै अंतर्गत औरै पतियाँ लिखि पठवत हैं बनाय॥
ज्यों कोइलसुत काग जिआवत भाव-भगति भोजनहिं खवाय।
कुहकुहाय[१] आए बसंत ऋतु, अंत मिलै कुल अपने जाय॥
जैसे मधुकर पुहुप-बास लै फेरि न बूझै वातहु आय।
सूर जहाँ लौं स्यामगात हैं तिनसों क्यों कीजिए लगाय[२]?॥९१॥


हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।

समुझी बात कहत मधुकर जो? समाचार कछु पाए?
इक अति चतुर हुते पहिले ही, अरु करि नेह दिखाए।
जानी बुद्धि बड़ी, जुवतिन को जोग सँदेस पठाए॥
भले लोग आगे के, सखि री! परहित डोलत धाए।
वे अपने मन फेरि पाइए जे हैं चलत चुराए॥
ते क्यों नीति करत आपुन जे औरनि रीति छुड़ाए?
राजधर्म सब भए सूर जहँ प्रजा न जायँ सताए॥९२॥


जोग की गति सुनत मेरे अंग आगि बई।

सुलगि सुलगि हम रही तन में फूँक आनि दई॥
जोग हमको भोग कुब्‌जहिं, कौने सिख सिखई?
सिंह गज तजि तृनहिं खंडत सुनी बात नई॥
कर्मरेखा मिटति नाहीं जो बिधि आनि ठई।
सूर हरि की कृपा जापै सकल सिद्धि भई॥९३॥


  1. कुहकुहाय=कूकती है।
  2. लगाय=लन, प्रीति।