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भ्रमरगीत-सार
३६
हमसों बदलो लेन उठि धाए मनो धारि कर सूप॥
अपनो काज सँवारि सूर, सुनु, हमहिं बताव त कूप।
लेवा-देइ बराबर में है, कौन रंक को भूप ॥८२॥
बन बन खोजत फिरे बंधु-सँग, कियो सिंधु बीता को[१]॥
रावन मार्यो, लंका जारी, मुख देख्यो भीता[२] को।
दूत हाथ उन्हैं लिखि न पठायो निगम-ज्ञान गीता को॥
अब धौं कहा परेखो कीजै कुबजा के मीता को।
जैसे चढ़त सबै सुधि भूली, ज्यों पीता चीता को[३]?
कीन्हीं कृपा जोग लिखि पठयो, निरखु पत्र री! ताको।
सूरदास प्रेम कह जानै लोभी नवनीता को॥८३॥