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भ्रमरगीत-सार
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धोये रंग जात कहु कैसे ज्यों कारी कमरी?
ज्यों अहि डसत उदर नहिं पूरत ऐसी धरनि धरी[१]।
सूर होउ सो होउ सोच नहिं, तैसे हैं एउ री॥६९॥
तौ हम मानैं बात तुम्हारी।
अपनो ब्रह्म दिखावहु ऊधो मुकुट-पितांबरधारी॥
भजिहैं तब ताको सब गोपी सहि रहिहैं बरु गारी।
भूत समान बतावत हमको जारहु स्याम बिसारी॥
जे मुख सदा सुधा अँचवत हैं ते विष क्यों अधिकारी?
सूरदास प्रभु एक अंग पर रीझि रहीं ब्रजनारी॥७०॥
यहै सुनत ही नयन पराने।
नयननि वहै रूप जौ देख्यो।
तौ ऊधो यह जोबन जग को साँचु सफल करि लेख्यो॥
लोचन चारु चपल खंजन, मनरँजन हृदय हमारे।