यह पृष्ठ प्रमाणित है।
भ्रमरगीत-सार
२६
बिलग जनि मानौ हमरी बात।
कहि कहि कथा, मधुप, समुझावति तदपि न रहत नंदनंदन बिन॥
बरजत श्रवन सँदेस, नयन जल, मुख बतियाँ कछु और चलावत।
बहुत भाँति चित धरत निठुरता सब तजि और यहै जिय आवत॥
कोटि स्वर्ग सम सुख अनुमानत हरि-समीप-समता नहिं पावत।
थकित सिंधु-नौका के खग ज्यों फिरि फिरि फेरि वहै गुन गावत॥
जे बासना न बिदरत अंतर[४] तेइ तेइ अधिक अनूअर[५] दाहत।
सूरदास परिहरि न सकत तन बारक बहुरि मिल्यो है चाहत॥६०॥
रहु रे, मधुकर! मधुमतवारे।