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भ्रमरगीत-सार
१८
तिन अपनो मन हरत न जान्यो हँसि हँसि लोग जियो॥
सूर तनक चंदन चढ़ाय तन ब्रजपति बस्य कियो।
और सकल नागरि नारिन को दासी दाँव लियो॥३६॥
हरि काहे के अंतर्यामी?
अपने स्वारथ को सब कोऊ।
चुप करि रहौ, मधुप रस लंपट! तुम देखे अरु वोऊ॥
औरौ कछू सँदेस कहन को कहि पठयो किन सोऊ।