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भ्रमरगीत-सार
१६
 


तेरो बुरो न कोऊ मानै।

रस की बात मधुप नीरस, सुनु, रसिक होत सो जानै॥
दादुर बसै निकट कमलन के जन्म न रस पहिंचानै।
अलि अनुराग उड़न मन बाँध्यो कहे सुनत नहिं कानै॥
सरिता चलै मिलन सागर को कूल मूल द्रुम भानै[१]
कायर बकै, लोह[२] तें भाजै, लरै जो सूर बखानै॥३१॥


घर ही के बाढ़े[३] रावरे।

नाहिंन मीत बियोगबस परे अनवउगे[४] अलि बावरे!
भुखमरि जाय चरै नहिं तिनुका सिंह को यहै स्वभाव रे।
स्रवन सुधा-मुरली के पोषे जोग-जहर न खवाव, रे!
ऊधो हमहि सीख का दैहो? हरि बिनु अनत न ठाँव रे!
सूरदास कहा लै कीजै थाही नदिया नाव, रे!॥३२॥


राग मलार
स्याममुख देखे ही परतीति।

जो तुम कोटि जतन करि सिखवत जोग ध्यान की रीति॥
नाहिंन कछू सयान ज्ञान में यह हम कैसे मानैं।
कहौ कहा कहिए या नभ को कैसे उर में आनैं॥
यह मन एक, एक वह मूरति, भृंगकीट[५] सम माने।
सूर सपथ दै बूझत ऊधो यह ब्रज लोग सयाने॥३३॥


  1. भानै=तोड़ती है।
  2. लोह=लोहा, हथियार।
  3. घर ही के बाढ़े=अपने ही घर बढ़बढ़ कर बात करनेवाले।
  4. अनवउगे=अँगवोगे, सहोगे।
  5. भृंगकीट=बिलनी नाम का कीड़ा जिसके विषय में प्रसिद्ध है कि वह और कीड़े को पकाकर उसे अपने रूप का कर देता है।