ऐतिहासिक ग्रंथ हूँढने पर भी किसी तरह का पता लगाए नहीं लगता । मनुष्यों के नाम लिखने में प्रायः उनके पिता का नाम, जाति और वासस्थान का भी पता भूपणजी लिख दिया करते थे। आपने प्रबंधध्वनि ( Allusions ) भी बहुत रक्खी है। ऐतिहासिक घटनाएँ लिखने के साथ ही साथ आप की सत्य- प्रियता भी विशेष सराहनीय है। यद्यपि शिवाजी ने इन्हें लाखों रुपये दिए, तथापि इन्होंने उनके हारने तक का वर्णन किसी न किसी प्रकार कर हो दिया; और जो बातें उनकी सत्यता एवं महत्व के प्रतिकूल थीं, उन्हें भी कह दिया है (शि० भू० छंद नं० २१२, २१३, देखिए )। इसी प्रकार जब ये महाशय छत्रसाल के यहाँ बैठे थे, तब भी इन्होंने कहा कि “साहू को सराहों के सराहों छत्रसाल को" | इनके चित्त में साहू का ख्याल अधिक था और छत्रसाल का उनके बाद। इस विचार को इन्होंने स्वयं छत्रसाल तक पर प्रकट करने में संकोच नहीं किया। कमाऊँ महाराज के यहाँ भी अपनी अप्रसन्नता प्रकट कर दी। इसको स्वतंत्रता भी कह सकते हैं; परंतु सत्यप्रियता का भी इन बातों में बहुत कुछ अंश है। इन्होंने शिवाजी के शत्रुओं को उनसे मेल करने की बहुत सलाह दी है। शि० भू० नंबर १५०, २६१, २७६, २७९, ३१२ तथा शि० वा० नं० ३१ देखिए। भूषण महाराज ने घटनाओं के साथ कभी कभी खयाली अथवा भड़कीला वर्णन कर दिया है; पर ऐसी बातों को उन्होंने सत्य बातों की भाँति नहीं कहा है और न उन्हें असत्य प्रमाणित
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