[ ६० ] शिवावावनी के विषय में बहुत लोगों का यह भी मत है कि जब भूपण पहले पहल शिवाजी के पास गए और उन्हें "इंद्रजिमि जंभ" वाला छंद सुनाया, तब परम प्रसन्न होकर उन्होंने कहा- "फिर कहो" (शि० भू० छं० २०५६)। इस पर भूषण ने एक अन्य छंद पढ़ा। पुन: "और कहो" की आज्ञा पाकर एक और छंद सुनाया। इसी प्रकार एक एक करके ५२ वार ५२ छंद पढ़ कर वे थक गए। वही ५२ छंद शिवाचावनी के नाम से प्रसिद्ध हुए । यह मत किसी अंश में शुद्ध नहीं है; कारण यह कि इस ग्रंथ में करनाटक की चढ़ाई का भी वर्णन है जो सन् १६७६-७८ ई० में हुई थी। अतः इस मत्तानुसार यह सिद्ध होता है कि भूषण पहले पहल शिवाजी के यहाँ सन् १६७८ के पश्चात् गए थे ; परंतु ये स्वयं लिखते हैं कि इन्होंने संवत् १७३० ( अर्थात् सन् १६७३ ईसवी ) में शिवराजभूपण ग्रंथ समाप्त किया। फिर इस वावनी में एक छंद सुलंकी ("हृदयराम सुत रुद्र") और एक अवधूत- सिंह की प्रशंसा में लिखा था जिससे प्रत्यक्ष प्रतीत होता है कि वह शिवाजी को ग्रंथरूप में कदापि नहीं सुनाई गई । इसके स्वतंत्र ग्रंथ होने के विरुद्ध यह भी प्रमाण है कि इसका वंदनावाला छंद ही शिवराजभूपण से लिया गया था, एवं दो एक और भी छंद ऐसे ही थे। इसमें आद्योपांत कोई प्रबंध भी नहीं है, और न किसी ने इसे स्वतंत्र ग्रंथ कहा ही है। यह उत्कृष्ट ग्रंथ है और हिंदी में इसके जोड़ के बहुत ग्रंथ न मिलेंगे।
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