[ ५८ ] श्रीशिवावावनी . .. जैसा कि हम ऊपर लिख चुके हैं, यह कोई स्वतंत्र ग्रंथ नहीं, अथच भूषण के बावन छंदों का संग्रह मात्र है। मुद्रित प्रतियों में शिवराजभूषण के छंद नं० २ और ५६ एवं स्फुट काव्य के छन्द नं० २, ४, ७ और ८ भी इसी ग्रंथ में सम्मिलित हैं; परंतु हमने प्रथम दो को अन्य ग्रंथ के छंद होने के कारण और शेष चारं को अन्य पुरुषों की प्रशंसा के छन्द होने के कारण शिवा. वावनी से निकाल दिया। इसमें तो शिवाजी ही की प्रशंसा के छन्द होने चाहिएँ; परन्तु इन चारों में सुलंकी, अवधूतसिंह, साहूजी और शंभाजी का यश वर्णित है। इस ग्रंथ का संग्रह होने के कारण हमने ऐसा करने में कोई दूषण भी नहीं समझा। हमने वर्तमान ग्रंथ के छंद नं० १, २८, ३१, ३८, ४०, ४१ और ५० स्फुट कविता से निकाल कर इस ग्रंथ में रख दिए हैं । इनमें से छंद नं० ३८ व ४० को छोड़कर शेष कवि गोविंद गिल्ला भाई की प्रति से मिले हैं। ____शिवावावनी की मुद्रित प्रतियों में कोई क्रम नहीं था, अतः हमने ऐतिहासिक घटनाओं तथा साहित्यिक कथनों के विचार से पूर्वापर के अनुसार इसे क्रमबद्ध कर दिया है। इसमें बहुत सा वर्णन शिवराज के अभिषेकानंतर का है। यह समय ऐसा था कि जब शिवाजी वीजापुर तथा गोलकुण्डा को भली भांति पद- दलित कर चुके थे और ये दोनों राज्य उनके प्रभुत्व को स्वीकार करके ५ लाख तथा ३ लाख रुपए वार्षिक कर उन्हें देने लगे थे।
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