भाग सन् १६७० के पहले लिखा गया और अंत का सन् १६७२ और १६७३ में वना; एवं इसका मध्य भाग सन् १६७० और १६७१ के लगभग बनाया गया। इन सब विचारों से विदित होता है कि भूपणजी ने यह ग्रंथ सन् १६६७ ई० के लगभग प्रारंभ किया था और इसी क्रम से जो हम आज देखते हैं यह ग्रंथ बना; परंतु कुछ कुछ अलंकारों के उदाहरण उस समय नहीं बनाए गए थे या शिथिलता के कारण पीछे ग्रन्थ से निकाल दिये गये। वे अलंकार पीछे कहे गए। इसी कारण कहीं कहीं आदि में भी सन् १६७० के पीछे तक की घटनाएँ आ गई है। कहीं कहीं प्रथम उदाहरण में उस समय की घटनाओं का वर्णन है, और फिर अंत में द्वितीय उदाहरण पीछे की घटनाओं से भरा हुआ रख दिया गया है। कहीं कहीं संभव है कि द्वितीय उदाहरण भूपण जी को ऐसा अच्छा लगा हो कि उन्होंने पहला उदाहरण ग्रंथ से निकाल दिया हो अथवा पहले उदाहरण के पूर्व रख दिया हो। पाठकों को उपर्युक्त चक्र देखने से विदित होगा कि अधिकतर ज्यों ज्यों ग्रंथ बढ़ता गया है, उसी प्रकार सन् भी बढ़ते गए हैं। इन सब विचारों से इस कुल ग्रंथ का एक ही डेढ़ साल में बनना मानना ठीक नहीं जंचता। फिर यदि भूपणजी ग्रन्थ इतने शीघ्र बनाते होते कि डेढ़ साल में इतना बड़ा ग्रन्थ बना डालते, तो अपने शेष कवित्व- काल के ६५ सालों में न जाने कितना बनाते । छंद नंबर २०७ में करनाटक की चढ़ाई के वर्णन का भ्रम
पृष्ठ:भूषणग्रंथावली.djvu/६०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।